
ज़िन्दगी से तो रूबरू बहरहाल हम हो ही जाते हैं मगर ज़िन्दगी के सवालों के साथ संवाद हमारा कभी कभी ही हो पाता है और यह किताब वो "कभी" है। सत्य की कलम अपने हर पृष्ठ में दिल दहलाने और दिमाग खोलने वाले प्रश्न, अनुभव, और आलोचनात्मक टिपपणियां छुपाए हुए है जो चल रहे जीवन पर अल्पविराम लगाने के लिए प्रोत्साहित करती है और ख़ुद से यह सवाल करने को कहती है कि क्या इस ज़िन्दगी को और बेहतर तरीके से जिया जा सकता है? थोड़ा कम दिखावटी, थोड़ा भावात्मक, ख़ुद की जरूरतों से दूर प्रकृति के सहुलतो के वास्ते? इस सफर में कुछ ऐसे ही सवालों से राब्ता और इनका जवाब खोजने की उत्सुकता में स्वयं पर नाज़ होगा।
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